Saturday, May 30, 2009

बुलबुला

बरसात हो रही है.........जमीन पर पड़ती बूँदें.........बनते बिगड़ते बुलबुले.........इन्ही बुलबुलों सी ही तो है जिन्दगी.......एक पल बनती अगले ही पल बिगड़ती पर इन दो पलों के बीच एक पूरी जिंदगी। कश्मकश.......होड़......आपाधापी......संघर्ष.......औपचारिकता, यही जिंदगी के पर्याय बन गए हैं। लड़का हो या लड़की.........पैदा होते ही जीने की जद्दोदहद.........चीख चीख कर सांस खींच कर जिंदगी की शुरुआत........माँ की उंगली का सहारा ले कर पहली बार खड़ा होना, वो पहला कदम........माँ बाप के साथ जिंदगी की इसी भगदड़ में शामिल हो जाता है। आज स्कूल में दाखिला........फ़िर खेल कूद में ईनाम.........गायन भी तो सीखना है........अरे ! क्रिकेट क्लास तो रह ही गई........थोड़ा सा ठहराव..........फ़िर नया संघर्ष...........नौकरी ढूँढने का, लग जाय तो उन्नति..........विदेश कैसे जाऊं..........हाय कहीं कोई मुझसे आगे निकल जाय..........उसको पछाड़ दिया..........इसको पीछे छोड़ दिया..........बड़ी उपलब्धि........तब एक और नई जिंदगी साथ जुड़ जाती है इसी आपाधापी में वही भगदड़ वही मारामारी.......बच्चे हुए तो किस्सा शुरू से शुरू.........सारे रिश्ते नाते औपचारिकता भर रह गए। यहाँ तक की खुशियों के साथ भी औपचारिकता ही निभाते रहे। मनाया तो हर एक छोटी से छोटी खुशी का भी बड़ा सा जश्न, पर उसके पीछे भी कुछ जोड़तोड़........कहीं दिखावा........कभी होड़........कभी किसी की खुशामद.......कभी किसी पर एहसान। जिंदगी काट ली, जी नही.......पर हाय यह क्या !!!!!!!! सब थम गया........बुलबुला तो फूट गया........ढेरों नए बनते बिगड़ते हैं पर वो वाला कहाँ है ?????????? वो तो विलीन हो गया उसी अनंत में जहाँ से आया था।
फ़िर क्या मायने रखती है यह अंधी दौड़.........जहाँ आदमी आदमी के सर पर पाँव रख कर ऊपर बढ़ने में लगा है.........इन बनते बिगड़ते बुलबुलों को देख कर यही सोच रही हूँ। क्योंकि इन्ही में से एक बुलबुला मैं भी तो हूँ।

Thursday, April 23, 2009

कहानी..........बीज

उसका जन्म हो चुका था..........पर वो संसार के लिया अदृश्य था...........वो जीवन के अन्य रूप की परतों के भीतर छुपा था..........वो एक बीज था। एक विशाल वृक्ष के ढेरों फलों में से एक के भीतर छुपा..........जीवन का आरंभ..........एक बीज। सब कुछ अनोखा था उसके लिए, वो फल की सुरक्षा में प्रतिदिन बढ़ रहा था.........उसका जीवन प्रत्येक दिन के साथ विकसित हो रहा था।

जैसे हर जीव अपने भविष्य से अनजान है, उसे भी अपने आने वाले दिनों का कुछ ज्ञान न था। पर कुछ तो था जो बदल रहा था। बीज हैरान था..........जिस सरसता में वो जी रहा था वो हर दिन के साथ कम हो रहीथी........शुष्कता बढ़ती जा रही थी..........वो सिमटता जा रहा था..........समझ नहीं पा रहा था की क्या हो रहा है और क्या होने जा रहा है..........हर नए दिन के साथ आने वाले दिन की प्रतीक्षा करता रहा।

एक दिन वो हो गया जो उसने सोचा भी न था। फल वृक्ष से अलग हो गया..........गिरते समय शाख से टकराया और टूट गया.........बीज बाहर आगया........उसका आवरण , उसका कवच छूट गया..........हवा के वेग से वो इधर उधर उड़ने लगा.........घबरा गया, डर के मारे और भी सिकुड़ गया..........उसकी रंगत भी भय से पीली पड़ गई। हवा के आगे उसकी एक न चली, वो जहाँ चाहती उसे उड़ा ले जा रही थी, कभी दायें कभी बाएँ कभी ऊपर कभी नीचे..........फ़िर वो एक ही स्थान पर देर तक गोल गोल घूमता रहा..........हवा का वेग कम हुआ और बीज धरती पर गिर गया। वो इतना डर चुका था कि दम साधे पड़ा रहा..........अपनी आँखें भींचे.........अपना शरीर सिकोड़े..........धीरे धीरे उसपर मिट्टी कि परतें पड़ती गयीं..........वो अन्धकार के गर्त में दब सा गया..........एक निर्जीव की भांति जाने कब तक सोता रहा।

फ़िर आकाश में मेघ छाये..........जोर से बिजली कड़की.........मूसलाधार बरसात हुई..........पानी बरसा तो बरसता ही रहा...........पूरी धरती ही भीग गई...........पानी रिसता हुआ मिटटी की परतों को पार कर बीज तक जा पहुँचा। बीज उससे सराबोर हो गया.........उसमें ऊर्जा का संचार हुआ..........अपने अस्तित्व का अहसास हुआ..........धीरे से सर उठाया मिटटी कि परतों को धीरे से खिसका कर बाहर झाँका..............यह क्या!!!!!!!!! इतना उजाला.........सब कुछ धुला धुला............उसके भीतर हलचल होने लगी.........पुराने आवरण टूट गए............भीतर नए जीवन का आरम्भ होने लगा.............नयी कोपलें बाहर आ गयी..........धूप में नहा कर चटख हरा रंग ओढ़ लिया। चारों और देखा तो उसके जैसे ढेरों नए जीवन आकार ले रहे थे............उसका आत्मविश्वास और द्रढ़ होगया...........उसने अपनी जड़ों को और फैलाया, धरती को कस कर थाम लिया। अब वो बीज से एक पौधे में बदल चुका था।

ठंडी हवा का एक झोंका आया.......उसने लहरा कर अपने नए जीवन का स्वागत किया...........अब वो तैयार था.............अनेक रूपों और पड़ावों से होता हुआ कुछ नए बीजों को जन्म देने के लिए..............इस जीवन चक्र को दोहराने के लिए।


Saturday, April 18, 2009

कमाल की कला..........फ़ूड आर्ट!

मेरी किसी मित्र ने मुझे यह तस्वीरें मेल की हैं। आप भी देखिये। हैं न कमाल। पता नहीं इन्हें बनाने वाला कलाकार कौन है, पर वो बधाई का पात्र जरूर है।

















Thursday, April 16, 2009

कहानी........औरत

यह कहानी एक औरत की है............औरत............एक ऐसी औरत जो सभी घटनाओं का केन्द्र थी फ़िर भी उसका महत्त्व किसी ने नहीं समझा और जब समझा तब बहुत देर हो चुकी थी

वो
औरत................एक व्यापारी के घर पैदा हुई...........कन्या रत्न की प्राप्ति घाटे में डूबे पिता के घर में...........जन्म से ही उपेक्षित रहीपिता ने तो कई दिनों तक उसका मुंह ही नहीं देखापर जब धीरे धीरे हालत सुधरी सफलताएं मिलने लगीं तो माँ बेटी के भाग्य को श्रेय देने लगी उसको सराहने लगी.........पिता के दिल में भी कुछ संवेदनाएं जागने लगीं........पर अंहकार ज्यादा बलवान था...........जिस बेटी को सदा अपनी असफलताओं का कारण साबित किया उससे सदा दूरी ही बनाए रखी.........जाने किस बात का आक्रोश था जो बेटी से दो मीठे बोल भी बोलने देतासारा प्यार सालों छोटे भाई के हिस्से में आयाबहन के प्रति व्यवहार में पिता के विचारों की ही छवि रही.............भाई के प्रेम को भी तरसती रही


फ़िर
एक दिन एक सजीला द्वार पर आया..........रीति रिवाजों में बाँधकर अपने घर ले गया...............पहली बार पिता ने खालीपन महसूस किया..........पर देर हो चुकी थी.........अब तो वो परायी हो गयी थी...........भरे पूरे परिवार की बड़ी बहू बन ढेरों जिम्मेदारियों के बोझ तले फ़िर कभी मायके की लाडली बेटी बन कर सकी...........जब भी आयी पीछे पीछे वापसी का बुलावा आजाताएक दिन अचानक पिता का देहांत हो गयामायके आयी तो माँ ने बताया कि उसके जाने के बाद पिता उसकी कमी महसूस करतेरहे..........अन्तिम समय में उसके प्रति अपने व्यवहार पर बहुत पछताए.................उसकी आँखें भर आयीं दिल ने कहा..............काश ऐसा पहले हो गया होता


समय
चक्र चलता रहामाँ भी चली गईभाई ने कभी मधुर सम्बन्ध रखे ही नहींमायके से रिश्ता बस रीति रिवाजों भर का रहापर जब पता चला भाई व्यापार में सब खो चुका है तो माँ से मिली सारी विरासत भाई को दे आयी.............विदेश जाकर एक नई शुरुआत करने को..............भाई ने पहली बार बहन को समझा...........पहली बार जाना कि वो माँ का ही प्रतिरूप है............दिल में प्यार जागा पर फ़िर से देर हो गईभाई पर इस तरह धन लुटाने से पति नाराज हो गए..........मायके से सारे रिश्ते तुड़वा दिए............विदेश जाने से पहले भाई मिलने आया तो द्वार से ही लौटा दिया गया..........उसकी आँखें फ़िर भर आयीं........दिल ने फ़िर कहा काश ऐसा पहले हो गया होतादिल पर पत्थर रख जीती रही औरों के लिए


पति
की नाराजगी जो शुरू हुई तो कभी ख़त्म हो सकीपत्नी की उपेक्षा कर काम में डूबे रहे............घर से ज्यादा समय बाहर बिताते........छोटी छोटी गलती पर भी उसे बुरी तरह लताड़ देतेइकलौता बेटा रईसी के अवगुणों से तो बचा रहा पर उसमें भी माँ के प्रति कभी सह्रदयता नहीं दिखी............एक अजीब सा परायापन पनपता रहाशायद पिता के व्यवहार ने माँ के प्रति उसका नजरिया ही बदल दिया था.........वह विदेश चला गयापीछे पति को जानलेवा बीमारी ने घेर लिया...........रोगशय्या पर कोई मित्र काम आयाउसने जीजान से पति की सेवा करी............पति ने उस औरत में बसी अपनी पत्नी को बरसों बाद पहचाना.............पर पुनः देर हो गई...........संबंधों से सुंदर रूप लेना शुरू भी किया था की म्रत्यु का देवता उसके पति को ले गयाजाते जाते पति ने उसके सर पर प्रेमपूर्वक हाथ रखा...........उसकी आँखें भर आयी दिल ने फ़िर कहा...........काश ऐसा पहले हो गया होतापिता की म्रत्यु का समाचार सुन बेटा आया...........सभी रीति रिवाज पूरे किए पर माँ से कटा कटा ही रहा.............पिता के प्रति अपने सारे धर्म निभा कर वापस चला गयामाँ की पीड़ा को समझे बिना........बांटे बिना..........एक बार मुड़ कर भी नहीं देखा...........अपनी नई दुनिया बसा ली.........उसी में खो गया


एक
औरत की जीवटता कब तक साथ देतीआघातों पर अघात सहते सहते मन के साथ तन भी टूटने लगारोगों से घिर कर बिस्तर पकड़ लिया। बेटे को फुर्सत मिली माँ के पास आने की.............शायद दिल ही कियाअपने काम के सिलसिले में दूसरे देश जाते समय एअरपोर्ट पर मामा मिलेउनसे पता चला की माँ आखिरी साँसें ले रही है.............उसको देखने के लिए ही तरस रहीहै.............मामा से माँ की जीवन कथा सुनी तो बेटे की ऑंखें खुलीं............ .माँ का वो पहलू दिखा जिस पर उसकी उपेक्षा ने परदा डाल रखा थातुंरत ही माँ से मिलने भागा.............जब पहुँचा तो माँ चिता के रथ पर सवार हो चुकी थीबेटा सर थाम कर बैठ गया............आँखों से पछतावे के आँसू बह चले...............असहाय सा चिता की अग्नि को देखता रहा...............और उसकी आत्मा कराह रही थी कि काश ऐसा पहले हो गया होता







Monday, March 30, 2009

ट्रैफिक सिग्नल पर.........

अभी दो दिन पहले अपनी एक मित्र के साथ किसी काम से घर के पास ही एक बाजार गयी थीजाते समय हमने देखा कि कुछ औरतें अपने बच्चों के साथ सड़क के किनारे बैठ कर खाने के डब्बे निकाल कर अपने बच्चों को खिला रही हैं और बीच बीच में ख़ुद भी खा रही हैंमाएं अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं उन्हें दुलार रही थी, बीचबीच में आपस में कुछ हँसी मजाक भी चल रहा थाउनको देख कर मुझे विचार आया कि ये औरतें शायद मजदूर हैं जो सुबह सुबह खाना बना कर लायी होंगी अब खापी कर काम पर जायेंगी, छोटे छोटे बच्चों को देखा तो लगा कि खेलने खाने की उम्र में ये बच्चे भी अपनी माँ के साथ धूप में भटक रहे हैं इन्हें तो स्कूल में होना चाहिए थापर सब लोग अपनी अपनी किस्मत से बंधे हैं उनकी नियति यही है फ़िर लगा कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता माँ तो कम से कम मेहनत कर के अपना और अपने बच्चों का पेट भर रही हैअपनी तरफ़ से वो भी बच्चों को बेहतर जीवन देने की कोशिश करती ही होगी। हमें देर हो रही थी इसलिए अपना काम जल्दी जल्दी निपटाने लगे। लगभग एक घंटे के बाद घर वापस जाते समय ट्रैफिक सिग्नल पर रुके तो देख कर चकित रह गयी........वही माएं अपने अपने बच्चों को लेकर लोगों से भीख मांग रही थी और वो छोटे छोटे बच्चे जो अभी कुछ देर पहले अपनी माँ के हाथों से खाना खा रहे थे एक हाथ अपने पेट पर रख कर अपने मुंह की ओर इशारा कर खाने के लिए पैसे मांग रहे थे........मेरा मन अजीब सा हो गया, मैं जिन्हें कर्मठ माएं समझ रही थी वो पैसे कमाने के लिए अपने बच्चों को आगे कर रही थी, साथ में छोटे बच्चे को देख कर लोग पैसे दे भी रहे थेऐसा नहीं कि मुझे पता नहीं कि आजकल भिक्षावृत्ति भी व्यवसाय है पर जो कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा उसके बाद मेरे सामने कोई जरूरतमंद आया तो क्या मैं उसकी कोई मदद कर सकूंगी या फ़िर शायद उसे शक की निगाहों से ही देखूंगी




Tuesday, March 3, 2009

सुपर मॉम नेवर क्राइस !


आप सोच रहे होंगे की यह कैसा शीर्षक है...... बताती हूँ पहले इसकी भूमिका बना लूँ। पिछले कुछ दिनों से मेरे छह वर्षीय जुड़वाँ सुपुत्रों को वायरल बुखार है। अब बुखार है तो स्कूल की छुट्टी पर आदत से मजबूर कि पल भर भी टिक के नहीं बैठते। जितनी देर बुखार ज्यादा रहता है चुपचाप कुछ करते रहते हैं पर जहाँ थोड़ा कम हुआ नहीं कि उधम शुरू। मुहँ का स्वाद खराब है तो खाना खाया नहीं जाता, अब शरीर कमजोर हो गया है इसलिए हर बात पर रोना आजाता है। उनके पीछे भागते भागते मेरी ख़ुद की हालत बीमारों जैसी हो गयी। पर क्या करें काम तो छोड़े नहीं जा सकते यही सोच कर उठी और जैसे तैसे घर को थोड़ा सुधारा। अभी काम ख़त्म भी नहीं हुआ था कि कुछ आराम कर सकूं और कमरे में हंगामा होने लगा तकिये जमीन पर, चादर मुड़ी तुड़ी ........देख कर बड़ा गुस्सा आया। बच्चे बीमार हैं यह सोच कर ख़ुद को शांत करना चाहा उनको तो कुछ नहीं कहा पर ख़ुद रोना आगया। मुझे रोता देख दोनों शांत हो गए, बड़े बेटे ने आकर धीरे से मेरे आंसू पोछे और बोला मत रो सुपर मॉम नेवर क्राइस। मैंने चकित हो कर पूछा कि सुपर मॉम क्या होता है तो बोला कि जब हमको चोट लगती है और हम रोते हैं तो तुम कहती हो कि सुपर मैन नेवर क्राइस। तो सुपर मैन की मम्मी सुपर मॉम ही होगी न। बच्चों के इस भोलेपन पर मैं मुस्करा के रह गयी। सारी थकान पल भर में गायब हो गयी........ और मुझे मुस्कराते देख दोनों ने फ़िर से तकिये फेंकने शुरू कर दिए इस बार तो उनके गिलाफ भी दूर जा गिरे। मेरे नन्हें शैतान

Sunday, March 1, 2009

हाथियों के साथ एक दिन....दुबारे

पिछले साल कूर्ग जाना हुआ (कर्नाटक के मडिकेरी नामक स्थान पर कूर्ग या कोडुगु नाम से जाना जाने वाला एक हिल स्टेशन) इसके बारे में तो हमने सुन रखा था रास्ते में हमें पता ला की यहाँ पर हाथियों का एक ट्रेनिंग सेंटर है जिसका नाम है दुबारे एलिफैंट कैंप है यह एक रिज़र्व फॉरेस्ट है यह मैसूर से लगभग 80 किलोमीटर दूर कुशलनगर के पास कावेरी नदी के किनारे स्थित है। यहाँ मैसूर दशहरा उत्स के लिए हाथियों को प्रशिक्षित किया जाता है। हमने भी वहां जाने का इरादा कर लिया टैक्सी हमें उस स्था तक ले गई जहाँ से हमें कावेरी नदी को नाव द्वारा पार कर के इस कैंप में जाना था। कैंप में छोटे बड़े सभी उम्र के हाथी थे। इस कैंप की सबसे अनोखी बात यह है की यहाँ पर्यटक भी इन हाथियों की दिनचर्या में भाग ले सकते हैं। बच्चे तो यह देख कर उछल पड़े हम भी टिकेट वगैरह ले कर तैयार हो गए। एक एक कर महावत अपने अपने हाथियों को लाने लगे। तीखे ढलान से होकर हाथी नदी की ओर चल पड़े। हम भी पीछे पीछे हो लिए। महावत उनको रगड़ रगड़ कर नहलाने लगे। हाथी भी मजे से पानी में लेट कर अपने महावत को सहयोग देते रहे। सबसे छोटा हाथी जो शायद तीन साल का था वह लेटने के बाद भी बच्चों से ऊँचा था। बच्चों ने उन्हें नहलाने में बड़ा मजा किया। नहाने के बाद सभी हाथी एक नियत जगह पर लाइन में खड़े हो गए जहाँ उनको भोजन दिया जाना था।सबसे छोटा हाथी तीन वर्ष का परशुराम सबसे ज्यादा चंचल था इस कैंप में हाथियों को उनकी नैसर्गिक खुराक जो उन्हें पेड़ पौधों से मिल जाती है उसके आलावा और भी पौष्टिक भोजन दिया जाता है खाने के बाद भी सभी हाथी काफी उत्सुकता से किसी चीज का इन्तजार करते लगे हमने पूछा तो पता चला की उन्हें गुड़ खाना है जो उनको बहुत पसंद है हर बार खाने के बाद उन्हें एक बड़ा सा टुकड़ा गुड का दिया जाता है इसके बाद सभी हाथी अपने अपने स्थान पर लौटने लगे हमने पूछा की यह कहाँ जा रहे हैं तो जवाब मिला अभी तैयार हो कर आयेंगे हम भी उत्सुकता से इन्तजार करने लगे थोड़ी देर के बाद दो बड़े हाथी को उनकी पीठ पर हौदा बाँध कर लाया गया बच्चों ने हाथी की सवारी का आनंद लिया सवारी के बाद हाथी ने अपनी सूंड उठा कर सबका अभिवादन किया हाथियों का कार्यक्रम समाप्त हो गया था वे सभी जंगल की और जाने लगे हम भी नाव द्वारा वापस दूसरे किनारे आगये जहाँ हमारी टैक्सी हमारा इन्तजार कर रही थी एक अनोखे और यादगार अनुभव को अपने दिल में समेट कर हमने वहां से विदा ली


Tuesday, February 24, 2009

कुछ यादें कुछ हकीक़त !!!!!!!!

आज सुबह सुबह समीर जी का लेख पढ़ा।......... उन्होनें ठेठ हिन्दुस्तानी अंदाज में बिताये अपने अवकाश के एक दिन का जो विवरण दिया उसने हमें बहुत कुछ याद दिला दिया.....। मन जैसे पल भर में बचपन की गलियों में दौड़ आया।........... नवाबों के शहर लखनऊ में मेरा जन्म हुआ, वहीं पली बढ़ी, पढाई भी वहीं हुई।........... पिता भौतिकी के प्रवक्ता और माँ गृहणी।............ पुराने लखनऊ में रहते थे।.......... साधारण सी दिनचर्या होती थी।............. सुबह पति और बच्चों को बाहर तक छोड़ने आई गृहणियां अड़ोस पड़ोस का हाल चाल पूछने के बाद ही अपने काम निपटाती थी।.............. सबको पता होता था की औरों के घर में क्या हो रहा है।......... ठेले वाले से सब्जी लेते लेते दिन के खाने के मेनू से लेकर व्यंजन विधियों और सलाह मशवरों के दौर हो जाते थे।......... शाम को पुरूष वर्ग ऑफिस से आने के बाद टहलने के बहाने राजनीति से लेकर महंगाई आदि के मसलों पर चर्चा कर लेता थे।........ बच्चों को समर कैंप जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।.......... आधी रात को भी आवाज दो तो दस लोग पूछने आ जाते थे।.......... वक्त जरूरत पर सभी पड़ोसी चाचा, चाची, ताऊ, ताई, मामा, मामी (आंटी अंकल का फैशन ज़रा कम था) की तरह हर सुख दुःख में हिस्सेदार होते।....... किसी के गाँव का कटहल हो या किसी के बाग़ के आम बँटते पूरे मोहल्ले में थे।....... होली दिवाली की तरह अचार, पापडों और बड़ियों का भी मौसम आता था।......... सबकी छतें इनसे पट जातीं थीं।........... सभी हाथ काम में जुटे होते थे।...... घर हमारा हो या पड़ोसी का सभी मिल बाँट कर साल भर का कोटा तैयार कर लेते थे।........ घरों की छतें इस तरह मिलीं होती थी की कभी कभी तो आना जाना भी वहीं से हो जाता था।......... सर्दियों में वहीं से स्वेटरों की बुनाइयों का आदान प्रदान होता था।.... आजकल महानगरों में हमारी जिंदगी सिर्फ़ दो रोटी के जुगाड़ की मशक्कत में बीतती जा रही है।.......... किसे फुर्सत है आचार पापड़ और बडियां बनाने की, सब कुछ स्टोर में मिल जाता है।....... मोहल्ला- पड़ोसी सब बीते समय की बात हो गए हैं।...... लोगों को यह पता नहीं होता की बाजू वाले घर में कौन रहता है......। बहुमंजिला इमारतों में एक साझा छत होती हैं उसे भी कई बार सोसाइटी वाले होर्डिंग या टावर लगाने के लिए किराए पर दे देते हैं।......... खिड़कियों से आसमान के छोटे छोटे टुकड़े दिखतें हैं या दूर दूर तक फैले कंक्रीट के जंगल।........ जड़ों से इतनी दूर बसें हैं कि बहुत ढूंढने पर ही कोई दूर दराज का रिश्तेदार मिल पाता है।......... मित्रों की परिभाषा और गिनती समय और सुविधा के अनुसार बदलती रहती है।........ हमारे बच्चों के लिए हर जान पहचान वाला अंकल या आंटी है।........ इन बड़े बड़े अपार्टमेन्ट और पॉश कालोनी में वो रिश्तों की उस गर्माहट से सर्वथा वंचित हैं जो हमें उन छोटे छोटे मोहल्लों की तंग गलियों में मिलती थी।......... यह आधुनिकता की अंधी दौड़, यह एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ हमें न जाने कहाँ ले जायेगी।............. कहीं यह सब सिर्फ़ कहानी बन कर न रह जाए।



Monday, February 2, 2009

एक नया ब्लॉग

मैंने अपनी पिछली पोस्ट में आपसे नए ब्लॉग के विषय में राय मांगी थी। आप सभी से मुझे सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिली। बहुत बहुत धन्यवाद। आपके प्रोत्साहन से ज़ायका नाम से नया ब्लॉग आरम्भ कर रही हूँआशा है आप सब को पसंद आयेगाआपके प्रश्नों, सुझावों और प्रतिक्रियाओं का सदा स्वागत है

आपकी राय!!!!!!

खाना पकाना मेरा शौक हैख़ुद खाने से ज्यादा दूसरो को खिलाना अच्छा लगता हैपाक कला में पारंगत तो नहीं फ़िर भी नई नई विधियों को आजमाना पसंद हैबहुत दिनों से मन में विचार आरहा है कि इस विषय पर अपनी जानकारी और व्यंजन विधियों को एक नए ब्लॉग के जरिये आप सभी के साथ बाँटू.................... परन्तु क्या इसकी उपयोगिता है !!!!! चाहती हूँ कि आप लोग इस पर अपनी राय दें

Friday, January 16, 2009

धन्यवाद!!!!

मुझे पढ़ने वालों को मेरा बहुत बहुत धन्यवाद
लिखती तो बरसों से हूँ पर कभी किसी को दिखाया नहीं, कभी कहीं छपाया नहींपहली बार अपने लेखन को दुनिया के सामने रखा तो लगा ही नहीं की इतने उम्दा लेखकों के बीच कहीं कोई मुझे भी पढ़ेगा, पर जब मुझे लोगों की प्रतिक्रियाएँ मिली तो पल भर तो विश्वास ही नहीं हुआ की मैंने जो लिखा वो लोगों को अच्छा लगा।

आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे प्रोत्साहित किया है, मुझे और लिखने की प्रेरणा दी है कोशिश करूंगी कि कुछ और लिखूं अच्छा लिखूं