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Monday, January 31, 2011

वादा करो........

फोन पर तुम्हारे वो शब्द...........मैं अब थक गया हूँ...........हार गया हूँ..........दिल चाहता है इस जिंदगी को ही ख़त्म कर दूं...........ये क्या कह गए तुम..........तुम और ऐसी निराशा की बातें..........तुम्हारे मुंह से ऐसी बातें मुझे बर्दाश्त नहीं होती.........परिस्थितियाँ चाहे जैसी हों...........हालात चाहे जैसे रहे हों........पर मैंने तुमको हमेशा जीवन उर्जा से भरा ही देखा है........फिर तुम्हारा यह रूप मैं कैसे बर्दाश्त करूँ..........तुम जिसने मुझे जीने की राह दिखाई आज खुद जीवन से पलायन की बात कर रहे हो...........तुमको ऐसा सोचना भी शोभा नहीं देता.........मुझे पता है तुम जीवन के किन पथरीले रास्तों से गुजर कर आये हो...........तुमने जीवन में बड़े उतार चढ़ाव देखे हैं...........ये तुम्हारे जीवन के अनुभव ही तो हैं जो जिन्होंने तुमको इतना संवेदनशील बना दिया है...........एक बार बस एक बार पीछे मुड़ कर देखो..........एक बार पीछे पलट कर देखो.........ज़रा अपनी ज़िंदगी की किताब को पलटकर तो देखो.........हो सकता है कि तुमको इसमें ऐसा बहुत कुछ दिखे जो तुमने खो दिया है..........या वो जो तुम्हे नहीं मिल सका है.........पर जितना मैं तुमको जानती हूँ..........ये कथित सफलताएं तुम्हारा मकसद कभी नहीं रही..........तुमको कभी इस अंधी दौड़ में शामिल नहीं देखा मैंने...........फिर आज ऐसा क्यूँ.........ज़रा एक बार अपनी ओर ध्यान से देखो........क्या तुम्हे नहीं लगता तुमने वो पाया है............जिसे पाने की ज़रुरत भी लोगों को तब समझ में आती है.............जब उनके पास कुछ पाने के लिए वक़्त ही नहीं बचा होता.........एक बार खुद पर अपने दिल पर नज़र तो डालो..........और खुद अपनी तुलना करो अपने आप से...........जो तुम पहले थे और जो तुम आज हो...........एक इंसान के तौर पर तुम आज कहाँ हो.........बोलो तुम कैसे कह सकते हो कि तुम हार गए हो..........तुम जो खुद को जीत चुके हो वो हार गया !!!! कैसे ?? इस निराशा से बाहर आओ........उनको मत देखो जो तुम्हारी ओर नहीं देखते............. उनको देखो जो तुम्हारी ओर ही देख रहे हैं...........उनके बारे में सोचो जो तुम्हारे भरोसे चल रहे हैं...........मेरे बारे में सोचो.........तुम्हे इस हाल में देख कर मैं कैसे जिऊँ.........तुम टूट गए तो मैं तो बिखर ही जाऊँगी..........नहीं तुम ऐसा नहीं कर सकते..........तुम नहीं हार सकते........तुम नहीं टूट सकते..........तुमको इन अंधेरों से बाहर आना ही होगा...........मुझसे वादा करो तुम इस हताशा से लड़ कर बाहर आओगे.........मुझसे वादा करो तुम फिर कभी यूँ हार नहीं मानोगे..........मुझसे वादा करो कि अगली बार जब मिलोगे तो होठों पर वही मुस्कान होगी और दिल में वही जोश..........देखो तो तुम जो मुझे जिंदगी के नित नए फलसफे समझाते रहते हो.........आज मुझे तुमको कुछ समझाना पड़ रहा है.......... फिर से ऐसा करना............फिर कभी ऐसा कहना........तुम हमेशा खुश रहो........हमेशा मुस्कराते रहो..........हमेशा मेरे साथ रहो........मेरे रहो.......रहोगे न.......वादा करो.........




Tuesday, December 14, 2010

लौट आओ......

लौट आओ कहाँ हो............. तुम बिन मेरी जिंदगी कितनी रीती रीती सी है...........कोई रंग नहीं कोई रौनक नहीं...............सब फीका सा बेमानी सा लगता है.............तुम कहाँ चले गए हो.........क्यूँ रूठे हो..........मुझसे यूँ रूठने की तुम्हारी आदत तो बड़ी पुरानी है............ज़रा ज़रा सी बात पर रूठ जाना और फिर मेरा तड़प कर तुमको मानना............यह सिलसिला उतना ही पुराना है जितनी तुम्हारी मेरी पहचान...............पर इस बार यूँ रूठ जाओगे मैंने सोचा भी न था...........एक बार मान जाओ.........एक बार आजाओ..........आके बता तो जाओ कि मेरी भूल क्या है............मुझसे क्या गलती हो गयी जो तुमने मुझे यूँ अपने से दूर रहने की सज़ा देदी........कितने साल हमने साथ साथ गुजारे हैं..............तुमको मेरी छोटी छोटी बातों का मेरी हर जरूरत का कितना ख्याल रहता था..........तुमको पुकार भी न पाती थी और तुम मेरे सामने होते थे...............तुम थे तो कभी जिंदगी में किसी और की ज़रुरत ही नहीं पड़ी..........कभी किसी को एहमियत ही नहीं दी...............कभी किसी और से जुडी ही नहीं.............. मुझको तुम्हारी आदत हो चुकी है...........कि अब तुम्हारे बिना जीना बड़ा ही दुश्वार लगता है............तुम ही तो मेरी जिंदगी कि धुरी थे.............. पर आज तुम मुझे यूँ छोड़ कर क्यूँ चले गए.............क्या तुमको मेरी याद नहीं आती...........क्या तुमको अब मेरा ख्याल नहीं................क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारे बिना मेरा क्या हाल होगा..........हमारा रिश्ता इतना कमजोर तो कभी न था कि हालात की एक हलकी सी आंधी उसको यूँ बिखेर दे.........वो जादूगर की कहानी याद हैं न जिसकी जान उसके तोते में रहती थी ..........तुम जानते हो न कि बस वैसे ही तुम में मेरी जान बसती है..........अब जब तुम नहीं हो तो मैं भी बेजान सी हो गयी हूँ ........तुम्हारे बिना मैं कितनी अकेली हो गयी हूँ...........तुम जानते हो न कि मेरे दिल और मेरी जिंदगी में तुम्हारी क्या जगह है...........फिर तुम ऐसा क्यूँ कर रहे हो..........क्यूँ मुझसे इतनी दूर चले गए हो..........कहाँ हो वापस चले आओ.........लौट आओ...........

Thursday, July 29, 2010

विदाई.....

ट्रेन धीमे धीमे सरकती हुई स्टेशन छोड़ रही है........इंजन की तेज़ सीटी सी एक गहरी टीस दिल में उठी..........काश मैं पापा मम्मी का बेटा होती तो मुझे भी हमेशा उनके साथ रहने का अधिकार मिला होता......यूँ इस उम्र में उनको अकेला छोड़ना पड़ता..........मम्मी को फ़ोन लगाया.....मम्मी ट्रेन चल दी है.........पहुँच कर फ़ोन करूंगी.........उधर से मम्मी कि आवाज़ आई........ठीक से बैठ गयीं.......बच्चे ठीक हैं........आराम से तो हो........कुछ पल का मौन........मैंने कहा.......मम्मी.......आगे कुछ कह पायी......कुछ पल फिर से मौन में बीते.......फिर मम्मी ने कहा........बिटिया तुम मेरा घर सूना कर के चली गयी........आज दिल वैसा ही हो रहा है जैसा तुमको पहली बार विदा करते समय हुआ था...........पिछले दो हफ्ते तुम दोनों और बच्चों से घर में कितनी रौनक थी......आज तुम्हारी गाड़ी गली में मुड़ी........मैं और पापा पलट कर घर में घुसे तो एक धक्का सा लगा...........सब खाली खाली सा........जहाँ नज़र जाती हैं तुम लोगों कि ही कोई बात याद आजाती है.......फिर बोली लो पापा से बात करो.......मैंने पापा को अपना और मम्मी का ध्यान रखने के साथ साथ और भी ढेर सारी हिदायतें दे डाली........उधर से पापा हमेशा की तरह अपनी संयत आवाज़ में बोले....ठीक है.......अपने ध्यान रखना और पहुँच कर फ़ोन करना अब रखो...........पिता हैं कैसे जताते.......पर मैं उन दोनों के दिल की पीड़ा से उनका ही अंश हो कर भला कैसे अनजान रह सकती हूँ.....आखिर मेरा दिल भी तो उसी पीड़ा से फटा जा रहा है...........
फ़ोन काट दिया........आँखें बंद कर के सर को पीछे टिका पिछले बारह दिनों को एक एक पल कर के फिर से जीती रही........अचानक एहसास हुआ कि आँखों से आसूँ बह रहे हैं.........हड़बड़ा कर उनको पोछा........इधर उधर देखा कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं........नज़र बच्चों पर पड़ी.......उनको देख कर मैं जैसे वर्तमान में आगयी .........मायका पीछे छूटता जा रहा है..........धीरे धीरे घर के काम याद आने लगे.........कहाँ से शुरू करने है..........क्या क्या करना है.........दिल पर हाथ रख कर अपने आप से कहा............यही ज़िंदगी है..........
आँखें अब सूख चुकी हैं.........दिल अब भी भारी है...........ट्रेन अब अपनी पूरी रफ़्तार से दौड़ी जा रही है






Saturday, April 24, 2010

तुमसे जलती हूँ मैं.............खुद पर इतराती भी हूँ !!!!!!

पता है मैं तुमसे जलती हूँ ..........सोचते होगे कि क्यूँ भला, मैं तुमसे क्यूँ जलने लगी.........बताऊँ ???? उस दिन जब मैंने तुमसे पूछा था कि क्या तुमको कभी इस बात की खुशी नहीं होती की कोई इस दुनिया में ऐसा है जो तुमसे बहुत प्यार करता है...........कोई दिल है जो सिर्फ तुम्हारे लिए ही धड़कता है....क्या तुम्हे इस बात पर झूमने का मन नहीं करता की कोई तुम्हारा दीवाना है.........मुझे याद है तुमने कहा था........मैं सब सुनता हूँ और मेरी समझ में सब आता है........मुझे सब पता है..........पर मैं अपने पाँव जमीन पर रखता हूँ.............
सच में बड़ी जलन हुई मुझे तुमसे.......तुम ऐसा कैसे कह सकते हो उससे भी ज्यादा ऐसा कैसे कर लेते हो...............दिल में प्यार भरा हो और कोई प्यार भरा दिल आपके लिए धड़कता हो..........आप सब जानते भी हो फिर भी पाँव जमीन पर रखते की काबिलियत है तुममें. कितना फर्क है तुममें और मुझमें.........पता है........यह सोच कर मैं अपने पर इतराती भी हूँ............अब सोचते हो कि वो भला क्यूँ...........यूँ भी मुझे बंधन अच्छे नहीं लगते.........तुमनें देखा है उड़ती फिरती हूँ अपने ही ख्यालों में........मेरी दुनिया में आसमान की कोई हद नहीं है इसलिए मैं जितना ऊँचा उड़ना चाहूँ उड़ सकती हूँ.......अपने पंखो को जितना चाहूँ पसार सकती हूँ.............जहाँ चाहूँ जब चाहूँ जा सकती हूँ मुझे कोई नहीं रोक सकता.......कभी कभी तो अपने ही आप पर रीझ जाती हूँ कि जिसके लिए दिल की हर धड़कन है............जिसकी खुशबू से मेरी हर सांस महकती है............उसके दिल में भी मेरे लिए प्यार ही प्यार है......यह ख़याल ही मेरे पांवों को जमीन पर टिकने नहीं देता
यह मत समझना कि मुझे ज़मीन की जरूरत का एहसास नहीं है........मुझे पता है कि एक दिन मुझे भी इसी मिट्टी में मिल जाना है........इसीलिए मैंने इसका एक छोटा सा टुकड़ा अपने पांवों के बीच फंसा रखा है...........जो मुझे हमेशा याद दिलाता रहता है की यही वह जगह है जहाँ आखिरकार मुझको आराम मिलना है.........क्योंकि मेरी दुनिया में सब कुछ है बस सुकून ही नहीं है.........प्यार जो करती हूँ..........अब एक दिल में या तो प्यार रह सकता है या फिर सुकून.......अब जब यह दिल प्यार से भरा है तो सुकून कहाँ से लाऊँ???
सच है मैं तुम्हारी तरह नहीं सोच सकती..............मैं व्यवहारिकता में अभी भी कच्ची हूँ..........पर तुम्हारी जिन्दगी का फलसफा जो मैंने देखा है और सुना है............उससे मैंने भी कुछ सीखा है......शायद तुम ठीक ही कहते हो
तुम मुझे जो भी समझाते हो........मैं हर बात बड़े ध्यान से सुनती हूँ..........समझने की कोशिश भी करती हूँ.........अक्सर तुम्हारी और मेरी सोच मेल नहीं खाती..........पर अगर तुम कहते हो तो वो सही ही होगा। इसीलिए मैंने अपने दिल की एक डोर तुम्हारे पांवों तले की जमीन से बाँध दी है...........जब मैं उड़ते उड़ते थक जाऊं..........भटकते भटकते गुम हो जाऊं जब मेरी रूह को सुकून की जरूरत हो तब तुम्हारे नेह की यही डोर मुझे तुम तक ले आये..........क्योंकि जब एक दिन इस जमीन पर आना है तो क्यूँ जमीन के उसी हिस्से में आके मिल जाऊं जहाँ तुम्हारे पाँव पड़ते हैं............मेरी खाक के लिए इससे बेहतर जगह और कोई हो सकती है भला ????
मैं आज जरूर अपनी ख्वाहिशों के आसमान में उड़ रही हूँ.........पर मुझे यकीन है कि जिस दिन मेरी थकन को जमीन की जरूरत होगी तुम अपने पांवों को थोड़ा सा हटा कर अपनी जमीन पर मेरे लिए ज़रा सी जगह बना ही लोगे....................
एक बात पूछूं ?? कहीं अब तुमको तो मुझसे जलन नहीं होने लगी है.............






Friday, April 23, 2010

थोड़ा सा जी लेने दे..........

बड़ी घुटन सी हो रही है.........मैं सांस भी नहीं ले पा रही हूँ........जिंदगी ने तहज़ीब, रस्मों रवायतों और फर्ज के इतने लबादे मेरे ऊपर लपेट दिए हैं कि मैं उनके बोझ तले दबी जा रही हूँ........मैं भूलती जा रही हूँ कि मैं कौन हूँ क्या हूँ, सारा दर्द दिल में जमता जा रहा है..........देखने वालों को लगता है कि ऐसा भी क्या हो गया है जो यह हमेशा दर्द की ही बातें करती है..........उनकी गलती नहीं..........किसी के दिल में झाँक कर उस की गहराइयों तक पहुँच पाना, छुपे हुए एहसासों के दरवाजे खोल पाना आसान काम नहीं है...........वो भी तब जब उस पर दिखावे के तबस्सुम के तालें जड़े हों.......
समझ में नहीं आता!! तू मेरी ही जिंदगी है ........सिर्फ मेरी........फिर भी मेरा तुझ पर कोई इख्तियार नहीं.....क्या फर्क है तुझमें और दुनिया वालों में......... वो मुझसे पूछते हैं कि मैं क्या चाहती हूँ........... तू कभी यह देखती है कि मैं किन उम्मीदों के साथ तेरी तरफ देख रही हूँ............या तू सब समझ कर भी अनदेखा कर देती है..........मानाकि तुझे उस ऊपरवाले ने बनाया है............तेरे वज़ूद का एक एक लम्हा खुदा ने खुद अपने हाथों मेरी तकदीर की कलम से लिखा है........जिसे उसके आलावा कोई भी बदल नहीं सकता......तू भी नहीं........पर तू मेरे लिए उससे एक गुजारिश तो कर ही सकती है........कर सकती है ??????
मैंने तो अपनी तरफ से हमेशा तुझे सवाँरकर सलीके से रखने की कोशिश की है......अब तक तुझसे कुछ भी नहीं माँगा..........क्या तू मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकती ? मेरी ओर से उससे एक बार इतनी इल्तजा कर के तो देख, शायद वो मान ही ले......मुझे बस कुछ पल दे दे............ज्य़ादा की हसरत नहीं है...........कुछ छोटी छोटी तमन्नाएँ जग गयी हैं........बस कुछ पल चैन की सांस ले लूं........कुछ पल आँख बंद करूं और मेरे दिल की तड़प को थोड़ा सा सुकून आजाये...........बस दो चार धडकनें थम थम के आहिस्ता से आजाये..........इन्तजार से थकी बोझिल नज़रों में वस्लेयार से थोड़ी सी चमक आजाये...........कई दिनों से जागती हुई रातों में कुछ पल के लिए नींद आजाये........बस इतना ही......मेरी ख्वाहिशें ज्यादा ऊंची नहीं हैं कि तू चाहे और पूरा ही कर पाए............बस कुछ देर के लिए रस्मों रवायतों का वास्ता दे.........फर्ज की बेड़ियाँ पहना.........कुछ देर के लिए इनके लबादे उतार लेनेदे.......... मेरी जिन्दगी इतना तो करेगी मेरे लिए.........बस इतना.........तेरी कसम फिर कुछ मांगूगी....कुछ चाहूंगी
बस कुछ देर जीना चाहती हूँ..........थोड़ा सा जी लेने दे।

Friday, April 9, 2010

सोचती हूँ तुमसे किनारा कर लूं...........

सोचती हूँ तुमसे किनारा कर लूं..........क्यूँ इतना आश्चर्य क्यूँ...........चलो तुम्हारा आश्चर्य करना कुछ तो वाजिब हैवैसे भी तुम मेरे साथ थे ही कब??? जब साथ ही नहीं तो मुझे जाना ही कहाँ??
तुमको शायद याद भी हो पर मेरे जेहन में तो वो पल आज भी वहीँ का वहीँ ठहरा हुआ है.......कितने साल होगए इस बात को शायद सोलह या सत्रह...........मैं हमेशा की तरह ख्यालों की दुनिया में गुम अपने आप में मस्त थी...........अपने काम में डूबी थी की पीछे से एक खनखनाती आवाज मुझसे टकराई.........मुड़ कर देखा तो वो तुम थे......पल भर को लगा कि मैं ये कहाँ आगई.......तुमने शायद मुझे देखा भी नहीं किसी और से उलझे रहेमैंने भी तुमको ठीक से कहाँ देखा..........पर तुम्हारी वो बोलती आँखें और वो दबी दबी सी मुस्कान........कुछ तो असर कर गयी
मुझे पता ही नहीं चला की मैं कब अपनी दुनिया से निकल कर एक नयी निराली दुनिया में आगई..........जहाँ हर पल मेरी नज़र तुम पर रहती हर सांस तुम्हारे शब्दों को सुनकर थम सी जाती..........पर मैं बावली जान ही पायी की तुम कब चुपके से मेरे दिल में घर कर गए.........तब भी जाना जब तुम दूर हो गए..........मैं फिर से अपने ख्यालों की दुनिया में गुम हो गयी पर इस बार तुम भी मेरे साथ थे......
कुछ महीने मेरे भीतर उथल पुथल मची रही...........कुछ खोया खोया सा लगता कुछ खाली कुछ रीता सा...........मैं खोजती ही रही की क्या है जो खो दिया और क्या है जो पा लिया........पर कुछ भी समझ नहीं आया.......इस एहसास का एहसास की तुम मुझे कुछ अपने से लगने लगे हो मुझे तब हुआ जब मैंने तुमको दोबारा देखा
उस अलसाई सी सुबह तुम्हारी नींद भरी आँखे मेरी आँखों से मिली मैं सिहर कर रह गयी..........तुमने फिर से मुझे अनदेखा कर दिया, पर मैं उसके बाद कुछ भी देख पाई.......मेरे भीतर कुछ एहसास पनपने की आहट ने उसदिन की तरह मेरे जीवन को भी बसंती कर दिया..............मैंने सोचा की अब जो मिले तो फिर खोने दूँगी कम से कम तुम्हारे सामने खड़े हो कर यह तो कह ही दूँगी की मैं भी हूँ...............मेरे भीतर के वो कोमल एहसास डरते सकुचाते धीमे धीमे पग रखते तुम्हारी ओर बढ़ने ही लगे थे पर तुम जान भी पाए और मैंने अपने हाथों से उनको मसल कर परे हटा दिया......नहीं पता था की तुमको देख कर अनजाने में जो एक साधारण सा जुमला मेरे मुह से निकला वो मेरे जीवन में इतना बड़ा तूफ़ान ला देगा.............तुम्हे याद नहीं वो मिठाई का दोना जो तुमने मेरी तरफ बढाया था उसे किसी ने यह कह कर परे हटा दिया कि मुझे पसंद नहीं............मुझसे सवाल किया गया की मेरे दिल में क्या है.........मैंने बेबाकी से कहा कुछ तो है क्या है यह पता नहीं...........मेरे सामने दो रास्ते रखे गए या तो मैं उनकी ख़ुशी कुर्बान कर दूं या फिर खुद कुर्बान हो जाऊं...........कहने वाले मेरे भी अपने थे और तुम्हारे भी.............पर तुम तो अपने भाई की बात पर कहकहे लगा रहे थे........तुमको मेरे दिल के टूटने की आवाज सुनाई भी दी...........मैं कब वहां से उठ कर चली आई तुमको पता भी चला.............
उस दिन मैं टूट कर बिखर गयी............अपने हाथों अपने दिल के इतने टुकड़े किये कि आज तक उन्हें कोई जोड़ सका............काश तुमने उस समय मेरी ख़ामोशी सुनी होती.............काश तुमने मेरी आँखे देखी होती..........पर तुम्हारी तो पीठ थी मेरी तरफ तुमने तो मुझे जाते हुए भी देखा............मैं तुम्हारी उस दुनिया से निकल आई जिसमें मेरे होने या होने का एहसास तुमको कभी हुआ ही नहीं.............मैंने इश्वर को साक्षी मान कर कसम खायी अब तुम उसे मेरे सामने ले आओ तो ले आओ मैं तुम्हारी ओर कभी नज़र उठा कर नहीं देखूँगी.............
उसके बाद मैंने तुमको फिर कभी नहीं देखा.............कभी कोशिश भी नहीं की............तुमको भुलाने की बहुत कोशिश की एक हद तक भुला भी दिया...........पर मैं मैं रही..........मेरे जीवन में फिर कोई बसंती रंग आया..............किसी आवाज में वो खनखनाहट सुनाई नहीं दी............पर जिन्दगी कहाँ किसी के लिए रुकती है सो मेरे लिए भी नहीं ठहरी.................जीवन अपनी गति से चलता रहा........मेरे जीवन ने कई नए रंग देखे...........मुझमें कई एहसासों ने जन्म लिया..........कितने बरस बीत गए.........सब ठीक ठाक चल ही रहा था........अचानक...... एकदिन तुम मेरे सामने...........वही बोलती आँखे वही आवाज वही दबी दबी सी मुस्कान............तुमने पूछा पहचानना नहीं क्या? मैं अवाक् रह गयी........कुछ ठहर कर मैंने जवाब भी दिया की मैं तो समझती थी की आप मुझे नहीं पहचानते.........पर तुम मेरी बात का मतलब नहीं समझे...........समझते भी कैसे मैंने कभी तुमको कुछ पता ही ना चलने दिया
अब जब फिर तुम मेरे सामने हो तो मैं बड़ी उलझन में हूँ...........जिन एहसासों को सालों पहले की एक बसंतपंचमी के दिन चौराहे की होली पर रख आई थी जिनको पूरनमासी की रात होलिका के साथ जला दिया था..........उसकी राख को भी आसुओं में घोल कर गरल बना कर पी गयी कि कोई उसे भी देख सके...........वो तो मेरे कंठ से उतरी ही नहीं और जो उतरी तो दिल के किसी कोने में आज तक दबी रही...........अब उस राख से आंसू सूख गए हैं...........उसमें हलचल होने लगी है.........डरती हूँ की कोई चिंगारी कहीं फूट जाए.................तब से और भी ज्यादा डर गयी हूँ जब बीती एक शाम मैंने तुम्हारे साथ वही मिठाई खा कर अपना व्रत तोड़ दिया................
तुमसे कटने लगी हूँ की कहीं तुम मुझको पढ़ लो.............कहीं मेरा भेद जान लो, जो मेरे इतने बरसों की तपस्या है..........आज मैं किसी के साए में खड़ी हूँ...............मेरे आँचल में किसी के भविष्य हैं............तुम्हारे हाथों की रेखाओं में भी तो तकदीर ने कई नाम जोड़ दिए हैं..............आज वो सब मेरे भी उतने ही अपने हैं जितने तुम्हारे........उस दिन मैंने वो विष इस लिए नहीं पिया था की आज उम्र के इस मोड़ पर जब सफेदी हमारे बालों से झलकने लगी है...............आज उसे उन्ही अपनों के गलों में उड़ेल दूं...............मेरी तपस्या भंग मत करना..........जैसे तुम अब तक अनजान थे वैसे ही अनजान बने रहना.......वरना वो तूफ़ान जो मैंने बरसों पहले रोका था अब आजायेगा..........इतने सालों के बाद उसे रोकने की ताकत मुझमें नहीं है........बड़ी मुश्किल से दिल को कतरा कतरा कर के जोड़ा है...............टूटने का दर्द जानती हूँ इसलिए किसी और के बिखरने का कारण नहीं बनना चाहती...........मेरे पास आना मैं फिर से बिखर जाऊंगी
शायद अब तक तुम मेरे दर्द की तहों तक जा कर उसपे लिखा अपना नाम पढ़ आए होगे............तुमने मुझे जान भी लिया होगा और पहचान भी लिया होगा..............कुछ एहसास तुम्हारे दिल में भी उठ रहेहोंगे............तुमको उन्ही का वास्ता........पहली पहली और आखिरी बार तुमसे कुछ मांगती हूँ.........अपनी इस विरहिणी को चिरविरहिनी ही बना रहने दो............इसी में सबकी भलाई है.........
.............इसीलिए सोचती हूँ तुमसे किनारा कर लूं................








(यह कहानी पूर्णतया काल्पनिक है जो रात के दो बजे मैंने लिखी है............वैसे आप सब इसे पढ़ कर अपने हिसाबसे समझनें और फिर सोचने के लिए स्वतंत्र हैं ........ :) )

Friday, March 19, 2010

शुक्रिया ......ऐ दोस्त !!!!!!

करीब दस महीनों के बाद आज अपने ब्लॉग पर कुछ लिख रही हूँइतने दिनों लिखने के बहुत ढेर सारे कारण हैं, उनको फिर कभी बताउंगी पर अभी बताती हूँ कि मैं क्यों फिर लिख पा रही हूँ...............इतने दिनों लिखा तो नहीं पर बहुत कुछ पढ़ा और बहुतों को पढ़ाउस बहुत कुछ और बहुतों में से कुछ ने मेरे अन्दर फिर से नए प्राणसंचार कर दिए हैं जो मेरा दिल फिर से सोचने पर मजबूर हो गया हैया यूँ कहें कि मैं दिल के हांथो मजबूर हो गयी हूँउसे सोचने से नहीं रोक सकतीविचारों कि बाढ़ सी आगयी हैदिल दिमाग में झंझावात से उठ रहे हैंमन बहुत बेचैन हैसमझ में नहीं आता कि शुरू कहाँ से करूं...................अब उस आरम्भ का आरम्भ हो ही गया है तो शुरू से ही शुरू करती हूँसबसे पहले तो उन दोस्तों का शुक्रिया जिनके कारण मैं आज फिर यहाँ हूँक्योंकि जो आपके में ऊर्जा का संचार करे, जो आपको भूली राह दिखाए, जो आपको आगे बढ़ने को प्रेरित करे वो आपके दोस्त के अलावा और कौन हो सकता हैअब वो कौन हैं इसे एक अबूझ पहेली ही बना रहने देती हूँ

(कुछ पंक्तियाँ याद आरही हैं.... पता नहीं किसकी हैं )

शुक्रियामेरी गैरत को जगाने वाले
मुझको मालूम नहीं था मैं अभी ज़िंदा हूँ

Saturday, May 30, 2009

बुलबुला

बरसात हो रही है.........जमीन पर पड़ती बूँदें.........बनते बिगड़ते बुलबुले.........इन्ही बुलबुलों सी ही तो है जिन्दगी.......एक पल बनती अगले ही पल बिगड़ती पर इन दो पलों के बीच एक पूरी जिंदगी। कश्मकश.......होड़......आपाधापी......संघर्ष.......औपचारिकता, यही जिंदगी के पर्याय बन गए हैं। लड़का हो या लड़की.........पैदा होते ही जीने की जद्दोदहद.........चीख चीख कर सांस खींच कर जिंदगी की शुरुआत........माँ की उंगली का सहारा ले कर पहली बार खड़ा होना, वो पहला कदम........माँ बाप के साथ जिंदगी की इसी भगदड़ में शामिल हो जाता है। आज स्कूल में दाखिला........फ़िर खेल कूद में ईनाम.........गायन भी तो सीखना है........अरे ! क्रिकेट क्लास तो रह ही गई........थोड़ा सा ठहराव..........फ़िर नया संघर्ष...........नौकरी ढूँढने का, लग जाय तो उन्नति..........विदेश कैसे जाऊं..........हाय कहीं कोई मुझसे आगे निकल जाय..........उसको पछाड़ दिया..........इसको पीछे छोड़ दिया..........बड़ी उपलब्धि........तब एक और नई जिंदगी साथ जुड़ जाती है इसी आपाधापी में वही भगदड़ वही मारामारी.......बच्चे हुए तो किस्सा शुरू से शुरू.........सारे रिश्ते नाते औपचारिकता भर रह गए। यहाँ तक की खुशियों के साथ भी औपचारिकता ही निभाते रहे। मनाया तो हर एक छोटी से छोटी खुशी का भी बड़ा सा जश्न, पर उसके पीछे भी कुछ जोड़तोड़........कहीं दिखावा........कभी होड़........कभी किसी की खुशामद.......कभी किसी पर एहसान। जिंदगी काट ली, जी नही.......पर हाय यह क्या !!!!!!!! सब थम गया........बुलबुला तो फूट गया........ढेरों नए बनते बिगड़ते हैं पर वो वाला कहाँ है ?????????? वो तो विलीन हो गया उसी अनंत में जहाँ से आया था।
फ़िर क्या मायने रखती है यह अंधी दौड़.........जहाँ आदमी आदमी के सर पर पाँव रख कर ऊपर बढ़ने में लगा है.........इन बनते बिगड़ते बुलबुलों को देख कर यही सोच रही हूँ। क्योंकि इन्ही में से एक बुलबुला मैं भी तो हूँ।

Monday, March 30, 2009

ट्रैफिक सिग्नल पर.........

अभी दो दिन पहले अपनी एक मित्र के साथ किसी काम से घर के पास ही एक बाजार गयी थीजाते समय हमने देखा कि कुछ औरतें अपने बच्चों के साथ सड़क के किनारे बैठ कर खाने के डब्बे निकाल कर अपने बच्चों को खिला रही हैं और बीच बीच में ख़ुद भी खा रही हैंमाएं अपने बच्चों के साथ खेल रही थीं उन्हें दुलार रही थी, बीचबीच में आपस में कुछ हँसी मजाक भी चल रहा थाउनको देख कर मुझे विचार आया कि ये औरतें शायद मजदूर हैं जो सुबह सुबह खाना बना कर लायी होंगी अब खापी कर काम पर जायेंगी, छोटे छोटे बच्चों को देखा तो लगा कि खेलने खाने की उम्र में ये बच्चे भी अपनी माँ के साथ धूप में भटक रहे हैं इन्हें तो स्कूल में होना चाहिए थापर सब लोग अपनी अपनी किस्मत से बंधे हैं उनकी नियति यही है फ़िर लगा कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता माँ तो कम से कम मेहनत कर के अपना और अपने बच्चों का पेट भर रही हैअपनी तरफ़ से वो भी बच्चों को बेहतर जीवन देने की कोशिश करती ही होगी। हमें देर हो रही थी इसलिए अपना काम जल्दी जल्दी निपटाने लगे। लगभग एक घंटे के बाद घर वापस जाते समय ट्रैफिक सिग्नल पर रुके तो देख कर चकित रह गयी........वही माएं अपने अपने बच्चों को लेकर लोगों से भीख मांग रही थी और वो छोटे छोटे बच्चे जो अभी कुछ देर पहले अपनी माँ के हाथों से खाना खा रहे थे एक हाथ अपने पेट पर रख कर अपने मुंह की ओर इशारा कर खाने के लिए पैसे मांग रहे थे........मेरा मन अजीब सा हो गया, मैं जिन्हें कर्मठ माएं समझ रही थी वो पैसे कमाने के लिए अपने बच्चों को आगे कर रही थी, साथ में छोटे बच्चे को देख कर लोग पैसे दे भी रहे थेऐसा नहीं कि मुझे पता नहीं कि आजकल भिक्षावृत्ति भी व्यवसाय है पर जो कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा उसके बाद मेरे सामने कोई जरूरतमंद आया तो क्या मैं उसकी कोई मदद कर सकूंगी या फ़िर शायद उसे शक की निगाहों से ही देखूंगी




Tuesday, March 3, 2009

सुपर मॉम नेवर क्राइस !


आप सोच रहे होंगे की यह कैसा शीर्षक है...... बताती हूँ पहले इसकी भूमिका बना लूँ। पिछले कुछ दिनों से मेरे छह वर्षीय जुड़वाँ सुपुत्रों को वायरल बुखार है। अब बुखार है तो स्कूल की छुट्टी पर आदत से मजबूर कि पल भर भी टिक के नहीं बैठते। जितनी देर बुखार ज्यादा रहता है चुपचाप कुछ करते रहते हैं पर जहाँ थोड़ा कम हुआ नहीं कि उधम शुरू। मुहँ का स्वाद खराब है तो खाना खाया नहीं जाता, अब शरीर कमजोर हो गया है इसलिए हर बात पर रोना आजाता है। उनके पीछे भागते भागते मेरी ख़ुद की हालत बीमारों जैसी हो गयी। पर क्या करें काम तो छोड़े नहीं जा सकते यही सोच कर उठी और जैसे तैसे घर को थोड़ा सुधारा। अभी काम ख़त्म भी नहीं हुआ था कि कुछ आराम कर सकूं और कमरे में हंगामा होने लगा तकिये जमीन पर, चादर मुड़ी तुड़ी ........देख कर बड़ा गुस्सा आया। बच्चे बीमार हैं यह सोच कर ख़ुद को शांत करना चाहा उनको तो कुछ नहीं कहा पर ख़ुद रोना आगया। मुझे रोता देख दोनों शांत हो गए, बड़े बेटे ने आकर धीरे से मेरे आंसू पोछे और बोला मत रो सुपर मॉम नेवर क्राइस। मैंने चकित हो कर पूछा कि सुपर मॉम क्या होता है तो बोला कि जब हमको चोट लगती है और हम रोते हैं तो तुम कहती हो कि सुपर मैन नेवर क्राइस। तो सुपर मैन की मम्मी सुपर मॉम ही होगी न। बच्चों के इस भोलेपन पर मैं मुस्करा के रह गयी। सारी थकान पल भर में गायब हो गयी........ और मुझे मुस्कराते देख दोनों ने फ़िर से तकिये फेंकने शुरू कर दिए इस बार तो उनके गिलाफ भी दूर जा गिरे। मेरे नन्हें शैतान

Tuesday, February 24, 2009

कुछ यादें कुछ हकीक़त !!!!!!!!

आज सुबह सुबह समीर जी का लेख पढ़ा।......... उन्होनें ठेठ हिन्दुस्तानी अंदाज में बिताये अपने अवकाश के एक दिन का जो विवरण दिया उसने हमें बहुत कुछ याद दिला दिया.....। मन जैसे पल भर में बचपन की गलियों में दौड़ आया।........... नवाबों के शहर लखनऊ में मेरा जन्म हुआ, वहीं पली बढ़ी, पढाई भी वहीं हुई।........... पिता भौतिकी के प्रवक्ता और माँ गृहणी।............ पुराने लखनऊ में रहते थे।.......... साधारण सी दिनचर्या होती थी।............. सुबह पति और बच्चों को बाहर तक छोड़ने आई गृहणियां अड़ोस पड़ोस का हाल चाल पूछने के बाद ही अपने काम निपटाती थी।.............. सबको पता होता था की औरों के घर में क्या हो रहा है।......... ठेले वाले से सब्जी लेते लेते दिन के खाने के मेनू से लेकर व्यंजन विधियों और सलाह मशवरों के दौर हो जाते थे।......... शाम को पुरूष वर्ग ऑफिस से आने के बाद टहलने के बहाने राजनीति से लेकर महंगाई आदि के मसलों पर चर्चा कर लेता थे।........ बच्चों को समर कैंप जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।.......... आधी रात को भी आवाज दो तो दस लोग पूछने आ जाते थे।.......... वक्त जरूरत पर सभी पड़ोसी चाचा, चाची, ताऊ, ताई, मामा, मामी (आंटी अंकल का फैशन ज़रा कम था) की तरह हर सुख दुःख में हिस्सेदार होते।....... किसी के गाँव का कटहल हो या किसी के बाग़ के आम बँटते पूरे मोहल्ले में थे।....... होली दिवाली की तरह अचार, पापडों और बड़ियों का भी मौसम आता था।......... सबकी छतें इनसे पट जातीं थीं।........... सभी हाथ काम में जुटे होते थे।...... घर हमारा हो या पड़ोसी का सभी मिल बाँट कर साल भर का कोटा तैयार कर लेते थे।........ घरों की छतें इस तरह मिलीं होती थी की कभी कभी तो आना जाना भी वहीं से हो जाता था।......... सर्दियों में वहीं से स्वेटरों की बुनाइयों का आदान प्रदान होता था।.... आजकल महानगरों में हमारी जिंदगी सिर्फ़ दो रोटी के जुगाड़ की मशक्कत में बीतती जा रही है।.......... किसे फुर्सत है आचार पापड़ और बडियां बनाने की, सब कुछ स्टोर में मिल जाता है।....... मोहल्ला- पड़ोसी सब बीते समय की बात हो गए हैं।...... लोगों को यह पता नहीं होता की बाजू वाले घर में कौन रहता है......। बहुमंजिला इमारतों में एक साझा छत होती हैं उसे भी कई बार सोसाइटी वाले होर्डिंग या टावर लगाने के लिए किराए पर दे देते हैं।......... खिड़कियों से आसमान के छोटे छोटे टुकड़े दिखतें हैं या दूर दूर तक फैले कंक्रीट के जंगल।........ जड़ों से इतनी दूर बसें हैं कि बहुत ढूंढने पर ही कोई दूर दराज का रिश्तेदार मिल पाता है।......... मित्रों की परिभाषा और गिनती समय और सुविधा के अनुसार बदलती रहती है।........ हमारे बच्चों के लिए हर जान पहचान वाला अंकल या आंटी है।........ इन बड़े बड़े अपार्टमेन्ट और पॉश कालोनी में वो रिश्तों की उस गर्माहट से सर्वथा वंचित हैं जो हमें उन छोटे छोटे मोहल्लों की तंग गलियों में मिलती थी।......... यह आधुनिकता की अंधी दौड़, यह एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ हमें न जाने कहाँ ले जायेगी।............. कहीं यह सब सिर्फ़ कहानी बन कर न रह जाए।



Friday, January 16, 2009

धन्यवाद!!!!

मुझे पढ़ने वालों को मेरा बहुत बहुत धन्यवाद
लिखती तो बरसों से हूँ पर कभी किसी को दिखाया नहीं, कभी कहीं छपाया नहींपहली बार अपने लेखन को दुनिया के सामने रखा तो लगा ही नहीं की इतने उम्दा लेखकों के बीच कहीं कोई मुझे भी पढ़ेगा, पर जब मुझे लोगों की प्रतिक्रियाएँ मिली तो पल भर तो विश्वास ही नहीं हुआ की मैंने जो लिखा वो लोगों को अच्छा लगा।

आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे प्रोत्साहित किया है, मुझे और लिखने की प्रेरणा दी है कोशिश करूंगी कि कुछ और लिखूं अच्छा लिखूं

Sunday, September 21, 2008

मैं कौन हूँ ?????

मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? क्यों हूँ ? इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढते ढूंढते अपने अन्तर को खंगालती रहती हूँ ? बहुत कुछ मिलता भी है बेचैनियाँ, तन्हाइयां, हसरतें, टूटे हुए सपने, ढेरों निराशा। मन उदास सा हो जाता है। सारे विचार इधर उधर हो जाते हैं, आंखों के आगे सारे शब्द तैरने लगते हैं ,एक एक अक्षर बिखर जाता है, तभी उनमें से कुछ अलग हो कर चमकने लगते हैं और जुड़ कर कुछ नए शब्द बनाते हैं, फ़िर एक बिजली सी कौंधती है ..... हलचल सी होती है .... वह चमचमाते, कौंधते हुए शब्द सुर ताल में नृत्य करते से लगते हैं। एक लय में बंधे घूमते घूमते अचानक ठहर जाते हैं। ध्यान से देखती हूँ तो उनमें कोई नई कविता कोई नई कहानी मिलती है और अपने भीतर के किसी कोने की परछाई दिखाई देने लगती है। कुछ मिल जाने की तसल्ली होती है। फ़िर ........ जाने कहाँ से वही बेचैनी चली आती हैं और मैं अपने भीतर कुछ और प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में लग जाती हूँ। यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है और चलता रहेगा। कब मिलेंगे मुझे मेरे जवाब ??????????????? जाने!!!!!!!!!!!!!