आज सुबह सुबह समीर जी का लेख पढ़ा।......... उन्होनें ठेठ हिन्दुस्तानी अंदाज में बिताये अपने अवकाश के एक दिन का जो विवरण दिया उसने हमें बहुत कुछ याद दिला दिया.....। मन जैसे पल भर में बचपन की गलियों में दौड़ आया।........... नवाबों के शहर लखनऊ में मेरा जन्म हुआ, वहीं पली बढ़ी, पढाई भी वहीं हुई।........... पिता भौतिकी के प्रवक्ता और माँ गृहणी।............ पुराने लखनऊ में रहते थे।.......... साधारण सी दिनचर्या होती थी।............. सुबह पति और बच्चों को बाहर तक छोड़ने आई गृहणियां अड़ोस पड़ोस का हाल चाल पूछने के बाद ही अपने काम निपटाती थी।.............. सबको पता होता था की औरों के घर में क्या हो रहा है।......... ठेले वाले से सब्जी लेते लेते दिन के खाने के मेनू से लेकर व्यंजन विधियों और सलाह मशवरों के दौर हो जाते थे।......... शाम को पुरूष वर्ग ऑफिस से आने के बाद टहलने के बहाने राजनीति से लेकर महंगाई आदि के मसलों पर चर्चा कर लेता थे।........ बच्चों को समर कैंप जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।.......... आधी रात को भी आवाज दो तो दस लोग पूछने आ जाते थे।.......... वक्त जरूरत पर सभी पड़ोसी चाचा, चाची, ताऊ, ताई, मामा, मामी (आंटी अंकल का फैशन ज़रा कम था) की तरह हर सुख दुःख में हिस्सेदार होते।....... किसी के गाँव का कटहल हो या किसी के बाग़ के आम बँटते पूरे मोहल्ले में थे।....... होली दिवाली की तरह अचार, पापडों और बड़ियों का भी मौसम आता था।......... सबकी छतें इनसे पट जातीं थीं।........... सभी हाथ काम में जुटे होते थे।...... घर हमारा हो या पड़ोसी का सभी मिल बाँट कर साल भर का कोटा तैयार कर लेते थे।........ घरों की छतें इस तरह मिलीं होती थी की कभी कभी तो आना जाना भी वहीं से हो जाता था।......... सर्दियों में वहीं से स्वेटरों की बुनाइयों का आदान प्रदान होता था।.... आजकल महानगरों में हमारी जिंदगी सिर्फ़ दो रोटी के जुगाड़ की मशक्कत में बीतती जा रही है।.......... किसे फुर्सत है आचार पापड़ और बडियां बनाने की, सब कुछ स्टोर में मिल जाता है।....... मोहल्ला- पड़ोसी सब बीते समय की बात हो गए हैं।...... लोगों को यह पता नहीं होता की बाजू वाले घर में कौन रहता है......। बहुमंजिला इमारतों में एक साझा छत होती हैं उसे भी कई बार सोसाइटी वाले होर्डिंग या टावर लगाने के लिए किराए पर दे देते हैं।......... खिड़कियों से आसमान के छोटे छोटे टुकड़े दिखतें हैं या दूर दूर तक फैले कंक्रीट के जंगल।........ जड़ों से इतनी दूर बसें हैं कि बहुत ढूंढने पर ही कोई दूर दराज का रिश्तेदार मिल पाता है।......... मित्रों की परिभाषा और गिनती समय और सुविधा के अनुसार बदलती रहती है।........ हमारे बच्चों के लिए हर जान पहचान वाला अंकल या आंटी है।........ इन बड़े बड़े अपार्टमेन्ट और पॉश कालोनी में वो रिश्तों की उस गर्माहट से सर्वथा वंचित हैं जो हमें उन छोटे छोटे मोहल्लों की तंग गलियों में मिलती थी।......... यह आधुनिकता की अंधी दौड़, यह एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ हमें न जाने कहाँ ले जायेगी।............. कहीं यह सब सिर्फ़ कहानी बन कर न रह जाए।
Tuesday, February 24, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
16 comments:
सही बात कह रहीं हैं आप। परन्तु शायद यह दौर भी निकल जाएगा और शायद लोग फिर से आस पड़ोस, दोस्तों की आवश्यकता महसूस करें और हाउसिंग सोसायटीज़ पुराने मोहल्ले का रूप लेने लगें।
घुघूती बासूती
लगता है....पहले पूरे भारतवर्ष के हर शहर की कहानी एक ही थी और अब सब जगहों से यह जीवनशैली गुम होती जा रही है।
चलो हमारे बहाने ही सही, बढ़िया गोता लगाया यादों के सागर में. कभी कभी ऐसा कर लेना चाहिये, अच्छा लगता है. :)
बहुत अच्छा और बेहतरीन लिखा है
बधाई स्वीकारें
समय बदलने के साथ साथ विचार और जीवनशैली भी बदल जाती है . जो पहले था अब नहीं रहेगा . बढ़िया स्मरण . बधाई
शिखा जी ,
अपने बिलकुल सही लिखा है .आज का लखनऊ
भी अब वो लखनऊ नहीं रह गया .यहाँ भी महानगरीय संस्कृति पूरी तरह अपने पांव पसर चुकी है .अब तो बच्चे सिर्फ एक सीमित दायरे में ही लोगों को जानते हैं .आपका लेख अच्छा लगा .
पूनम
बिल्कुल सही बात है आजकल वह दौर देखने को नही मिलता जो उस समय था।
हम तो ६० साल पीछे का याद कर दुखी होते रहते हैं. बहुत सदाही बात कही. घुघूती जी ने जो कहा है वह भी सच होता नहीं दिख रहा. हो सकता है हम गलत कालोनी में फंस गए हों. हमने बासी रोटी का उपमा बना के खाया, अच्छा लगा. वैसे बासी इडली का तो बनाते ही थे. आभार
http://mallar.wordpress.com
achchha lekh laga . badhaai ho.
शिखा जी ,मुझे भी मेरा बचपन बहुत याद आता है. परिवर्तन तो प्रकृति का नियम ही है .पर देखिये ,एक-दूसरे से मीलों दूर होकर भी हम इन्टरनेट के माध्यम से अनजाने लोगों से अपना दुःख-दर्द बाँट सकते हैं .हम दूर रहकर भी करीब हैं .है न !
सच कहा आपने ये दुनियादारी का नया मुलम्मा .कंक्रीट ओर सीमेंट की दीवारे ...रिश्तो की गर्माहट को कही पीछे छोड़ आयी ..
बिलकुल सही बात
अरे वाह आप भी लखनवी हैं हम भी हैं! हम तो पुराने शहर में रहे और नये शहर में भी! लखनऊ का रंग वही है बस दोस्तदारी बदल गयी है!
बिल्कुल सही रचना । बिल्कुल सही अंदाज में लिखा गया है
aapka dar niradhar nahi hai.
समय बदल जाता है पर यादे नहीं ख़त्म होती है .बहुत अच्छा लिखा है आपने
Post a Comment