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Saturday, April 18, 2009

कमाल की कला..........फ़ूड आर्ट!

मेरी किसी मित्र ने मुझे यह तस्वीरें मेल की हैं। आप भी देखिये। हैं न कमाल। पता नहीं इन्हें बनाने वाला कलाकार कौन है, पर वो बधाई का पात्र जरूर है।

















Sunday, March 1, 2009

हाथियों के साथ एक दिन....दुबारे

पिछले साल कूर्ग जाना हुआ (कर्नाटक के मडिकेरी नामक स्थान पर कूर्ग या कोडुगु नाम से जाना जाने वाला एक हिल स्टेशन) इसके बारे में तो हमने सुन रखा था रास्ते में हमें पता ला की यहाँ पर हाथियों का एक ट्रेनिंग सेंटर है जिसका नाम है दुबारे एलिफैंट कैंप है यह एक रिज़र्व फॉरेस्ट है यह मैसूर से लगभग 80 किलोमीटर दूर कुशलनगर के पास कावेरी नदी के किनारे स्थित है। यहाँ मैसूर दशहरा उत्स के लिए हाथियों को प्रशिक्षित किया जाता है। हमने भी वहां जाने का इरादा कर लिया टैक्सी हमें उस स्था तक ले गई जहाँ से हमें कावेरी नदी को नाव द्वारा पार कर के इस कैंप में जाना था। कैंप में छोटे बड़े सभी उम्र के हाथी थे। इस कैंप की सबसे अनोखी बात यह है की यहाँ पर्यटक भी इन हाथियों की दिनचर्या में भाग ले सकते हैं। बच्चे तो यह देख कर उछल पड़े हम भी टिकेट वगैरह ले कर तैयार हो गए। एक एक कर महावत अपने अपने हाथियों को लाने लगे। तीखे ढलान से होकर हाथी नदी की ओर चल पड़े। हम भी पीछे पीछे हो लिए। महावत उनको रगड़ रगड़ कर नहलाने लगे। हाथी भी मजे से पानी में लेट कर अपने महावत को सहयोग देते रहे। सबसे छोटा हाथी जो शायद तीन साल का था वह लेटने के बाद भी बच्चों से ऊँचा था। बच्चों ने उन्हें नहलाने में बड़ा मजा किया। नहाने के बाद सभी हाथी एक नियत जगह पर लाइन में खड़े हो गए जहाँ उनको भोजन दिया जाना था।सबसे छोटा हाथी तीन वर्ष का परशुराम सबसे ज्यादा चंचल था इस कैंप में हाथियों को उनकी नैसर्गिक खुराक जो उन्हें पेड़ पौधों से मिल जाती है उसके आलावा और भी पौष्टिक भोजन दिया जाता है खाने के बाद भी सभी हाथी काफी उत्सुकता से किसी चीज का इन्तजार करते लगे हमने पूछा तो पता चला की उन्हें गुड़ खाना है जो उनको बहुत पसंद है हर बार खाने के बाद उन्हें एक बड़ा सा टुकड़ा गुड का दिया जाता है इसके बाद सभी हाथी अपने अपने स्थान पर लौटने लगे हमने पूछा की यह कहाँ जा रहे हैं तो जवाब मिला अभी तैयार हो कर आयेंगे हम भी उत्सुकता से इन्तजार करने लगे थोड़ी देर के बाद दो बड़े हाथी को उनकी पीठ पर हौदा बाँध कर लाया गया बच्चों ने हाथी की सवारी का आनंद लिया सवारी के बाद हाथी ने अपनी सूंड उठा कर सबका अभिवादन किया हाथियों का कार्यक्रम समाप्त हो गया था वे सभी जंगल की और जाने लगे हम भी नाव द्वारा वापस दूसरे किनारे आगये जहाँ हमारी टैक्सी हमारा इन्तजार कर रही थी एक अनोखे और यादगार अनुभव को अपने दिल में समेट कर हमने वहां से विदा ली


Tuesday, February 24, 2009

कुछ यादें कुछ हकीक़त !!!!!!!!

आज सुबह सुबह समीर जी का लेख पढ़ा।......... उन्होनें ठेठ हिन्दुस्तानी अंदाज में बिताये अपने अवकाश के एक दिन का जो विवरण दिया उसने हमें बहुत कुछ याद दिला दिया.....। मन जैसे पल भर में बचपन की गलियों में दौड़ आया।........... नवाबों के शहर लखनऊ में मेरा जन्म हुआ, वहीं पली बढ़ी, पढाई भी वहीं हुई।........... पिता भौतिकी के प्रवक्ता और माँ गृहणी।............ पुराने लखनऊ में रहते थे।.......... साधारण सी दिनचर्या होती थी।............. सुबह पति और बच्चों को बाहर तक छोड़ने आई गृहणियां अड़ोस पड़ोस का हाल चाल पूछने के बाद ही अपने काम निपटाती थी।.............. सबको पता होता था की औरों के घर में क्या हो रहा है।......... ठेले वाले से सब्जी लेते लेते दिन के खाने के मेनू से लेकर व्यंजन विधियों और सलाह मशवरों के दौर हो जाते थे।......... शाम को पुरूष वर्ग ऑफिस से आने के बाद टहलने के बहाने राजनीति से लेकर महंगाई आदि के मसलों पर चर्चा कर लेता थे।........ बच्चों को समर कैंप जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।.......... आधी रात को भी आवाज दो तो दस लोग पूछने आ जाते थे।.......... वक्त जरूरत पर सभी पड़ोसी चाचा, चाची, ताऊ, ताई, मामा, मामी (आंटी अंकल का फैशन ज़रा कम था) की तरह हर सुख दुःख में हिस्सेदार होते।....... किसी के गाँव का कटहल हो या किसी के बाग़ के आम बँटते पूरे मोहल्ले में थे।....... होली दिवाली की तरह अचार, पापडों और बड़ियों का भी मौसम आता था।......... सबकी छतें इनसे पट जातीं थीं।........... सभी हाथ काम में जुटे होते थे।...... घर हमारा हो या पड़ोसी का सभी मिल बाँट कर साल भर का कोटा तैयार कर लेते थे।........ घरों की छतें इस तरह मिलीं होती थी की कभी कभी तो आना जाना भी वहीं से हो जाता था।......... सर्दियों में वहीं से स्वेटरों की बुनाइयों का आदान प्रदान होता था।.... आजकल महानगरों में हमारी जिंदगी सिर्फ़ दो रोटी के जुगाड़ की मशक्कत में बीतती जा रही है।.......... किसे फुर्सत है आचार पापड़ और बडियां बनाने की, सब कुछ स्टोर में मिल जाता है।....... मोहल्ला- पड़ोसी सब बीते समय की बात हो गए हैं।...... लोगों को यह पता नहीं होता की बाजू वाले घर में कौन रहता है......। बहुमंजिला इमारतों में एक साझा छत होती हैं उसे भी कई बार सोसाइटी वाले होर्डिंग या टावर लगाने के लिए किराए पर दे देते हैं।......... खिड़कियों से आसमान के छोटे छोटे टुकड़े दिखतें हैं या दूर दूर तक फैले कंक्रीट के जंगल।........ जड़ों से इतनी दूर बसें हैं कि बहुत ढूंढने पर ही कोई दूर दराज का रिश्तेदार मिल पाता है।......... मित्रों की परिभाषा और गिनती समय और सुविधा के अनुसार बदलती रहती है।........ हमारे बच्चों के लिए हर जान पहचान वाला अंकल या आंटी है।........ इन बड़े बड़े अपार्टमेन्ट और पॉश कालोनी में वो रिश्तों की उस गर्माहट से सर्वथा वंचित हैं जो हमें उन छोटे छोटे मोहल्लों की तंग गलियों में मिलती थी।......... यह आधुनिकता की अंधी दौड़, यह एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ हमें न जाने कहाँ ले जायेगी।............. कहीं यह सब सिर्फ़ कहानी बन कर न रह जाए।



Monday, February 2, 2009

एक नया ब्लॉग

मैंने अपनी पिछली पोस्ट में आपसे नए ब्लॉग के विषय में राय मांगी थी। आप सभी से मुझे सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिली। बहुत बहुत धन्यवाद। आपके प्रोत्साहन से ज़ायका नाम से नया ब्लॉग आरम्भ कर रही हूँआशा है आप सब को पसंद आयेगाआपके प्रश्नों, सुझावों और प्रतिक्रियाओं का सदा स्वागत है

आपकी राय!!!!!!

खाना पकाना मेरा शौक हैख़ुद खाने से ज्यादा दूसरो को खिलाना अच्छा लगता हैपाक कला में पारंगत तो नहीं फ़िर भी नई नई विधियों को आजमाना पसंद हैबहुत दिनों से मन में विचार आरहा है कि इस विषय पर अपनी जानकारी और व्यंजन विधियों को एक नए ब्लॉग के जरिये आप सभी के साथ बाँटू.................... परन्तु क्या इसकी उपयोगिता है !!!!! चाहती हूँ कि आप लोग इस पर अपनी राय दें